Dr. Mahendra Bhatnagar Ki Kavya-Srishti

सोमवार, 18 अगस्त 2008

उल्टा तीर पत्रिका (जश्ने -आज़ादी-२००८): करनी होगी आज़ादी की फिर से और लड़ाई !

रविवार, 17 अगस्त 2008

MADHURIMA [Love poems] / डा. महेंद्रभटनागर


मधुरिमा
[महेंद्रभटनागर]
कविताएँ
1 आदमी
2 कौन हो तुम ?
3 तुम
4 दर्शन
5 मत बनो कठोर
6 किरण
7 चाँद से
8 चाँद सोता है
9 कौन कहता है
10 शिशिर की रात (1)
11 शिशिर की रात (2)
12 बसंत
13 छा गए बादल
14 आ गया सावन
15 बरखा की रात
16 मेघ और शशि
17 निवेदन
18 चाँदनी में
19 ज्योत्स्ना
20 चाँद और तुम
21 बुरा क्या किया था
22 कल रात
23 जाओ नहीं
24 विश्वास
25 प्रतीक्षा
26 कोई शिकायत नहीं
27 विरह का गान
28 दीप जला दो
29 धन्यवाद
30 नींद
31 पूनम
32 झलकता रूप
33 समर्पण
34 बड़ा कठिन
35 कलानिधि
36 आकुल-अन्तर
37 मेरा चाँद ...
38 अमावस की अँधेरी में
39 मिल गये थे
40 ग्रहण
41 विवशता
42 ओ चाँद
43 आकर्षण
44 मृग-तृष्णा
45 चाँद और पत्थर (1)
46 चाँद और पत्थर (2)
47 न जाने क्यों ...
48 स्मृति की रेखाएँ
49 साथ
50 चाँ, मेरे प्यार !
51 दुराव
52 यह न समझो
53 तुमसे मिलना तो
54 आत्म-स्वीकृति
55 प्रेय

(1) आदमी
गोद पाकर, कौन जो सोया नहीं ?
होश किसने प्यार में खोया नहीं ?
आदमी, पर है वही जो दर्द को
प्राण में रख, एक पल रोया नहीं !

(2) कौन हो तुम
कौन हो तुम, चिर-प्रतीक्षा-रत
सजग, आधी अँधेरी रात में ?
उड़ रहे हैं घन तिमिर के
सृष्टि के इस छोर से उस छोर तक,
मूक इस वातावरण को
देखते नभ के सितारे एकटक,
कौन हो तुम, जागतीं जो इन
सितारों के घने संघात में ?
जल रहा यह दीप किसका,
ज्योति अभिनव ले कुटी के द्वार पर,
पंथ पर आलोक अपना
दूर तक बिखरा रहा विस्तार भर,
कौन है यह दीप ? जलता जो
अकेला, तीव्र गतिमय वात में ?
कर रहा है आज कोई
बार-बार प्रहार मन की बीन पर,
स्नेह काले लोचनों से
युग-कपोलों पर रहा रह-रह बिखर,
कौन-सी ऐसी व्यथा है,
रात में जगते हुए जलजात में ?

(3) तुम
सचमुच, तुम कितनी भोली हो !
संकेत तुम्हारे नहीं समझ में आते,
मधु-भाव हृदय के ज्ञात नहीं हो पाते,
तुम तो अपने में ही डूबी
नभ-परियों की हमजोली हो !
तुम एक घड़ी भी ठहर नहीं पाती हो,
फिर भी जाने क्यों मन में बस जाती हो,
वायु बसंती बन, मंथर-गति
से जंगल-जंगल डोली हो !

(4) दर्शन
मन, दर्शन करने से बंधन में बँध जाता है !
यह दर्शन सपनों में भी कर
देता सोये उर को चंचल,
लखकर शीशे-सी नव आभा
आँखें पड़ती हैं फिसल-फिसल,
नयनों का घूँघट गिर जाता, मन भर आता है !
यह दर्शन केवल क्षण भर का
बिखरा देता भोली शबनम,
बन जाता है त्योहार सजल
पीड़ामय सिसकी का मातम,
इसका वेग प्रखर आँधी से होड़ लगाता है !
यह दर्शन उज्वल स्मृति में ही
देता अंतर के तार हिला,
नीरस जीवन के उपवन में
देता है अनगिन फूल खिला,
इसका कंपन मीठा-मीठा गीत सुनाता है !
यह दर्शन प्रतिदिन-प्रतिक्षण का
लगता न कभी उर को भारी,
दिन में सोने, निशि में चाँदी
की सजती रहती फुलवारी,
यह नयनों का जीवन सार्थक पूर्ण बनाता है ।
यह दर्शन मूक लकीरों का
बरसा देता सावन के घन,
गहरे काले तम के पट पर
खिँच जाती बिजली की तड़पन,
इसका आना उर-घाटी में ज्योति जगाता है !

(5) मत बनो कठोर
इन बड़री-बड़री अँखियों से
मत देखो प्रिय ! यों मेरी ओर !
इतने आकर्षण की छाया
जल-से अंतर पर मत डालो,
मैं पैरों पड़ता हूँ, अपनी
रूप-प्रभा को दूर हटालो,
अथवा युग नयनों में भर लो
फेंक रेशमी किरनों की डोर !
और न मेरे मन की धरती
पर सुख-स्नेह-सुधा बरसाओ,
यह ठीक नहीं, वश में करके
प्राणों को ऐसे तरसाओ,
छू लेने भर दो, कुसुमों से
अंकित जगमग आँचल का छोर !
इस सुषमा की बरखा में तो
पथ भूल रहा है भीगा मन,
तुम उत्तरदायी, यदि सीमा
तोड़े यह उमड़ा नद-यौवन,
आ जाओ ना कुछ और निकट
यों इतनी तो मत बनो कठोर !

(6) किरण
उतरी रही प्रमोद से
अबोध चंद्र की किरण !
समस्त सृष्टि सुप्त देखकर,
रजत अरोक व्योम-मार्ग पर
समेट अंग-अंग
वेगवान रख रही चरण !
विमुक्त खूँदती रही निडर
हरेक गाँव, घर, गली, नगर,
न शांत रह सकी ज़रा
न कर सकी निशा-शयन !

(7) चाँद से
कपोलों को तुम्हारे चूम लूंगा,
मुसकराओ ना !
तुम्हारे पास माना रूप का आगार है,
सुनयनों में बसा सुख-स्वप्न का संसार है,
अनावृत अप्सराएँ नृत्य करती हैं जहाँ,
नवेली तारिकाएँ ज्योति भरती हैं जहाँ,
उन्हीं के सामने जाओ ; यहाँ पर,
झलमलाओ ना !
बड़ी खामोश आहट है तुम्हारे पैर की
तभी तो चोर बनकर आसमाँ की सैर की,
खुली ज्यों ही पड़ी चादर सुनहली धूप की
न छिप पायी किरन कोई तुम्हारे रूप की,
बहाना अंग ढकने का लचर इतना
बनाओ ना !
युगों से देखता हूँ तुम बड़े ही मौन हो
बताओ तो ज़रा, मैं पूछता हूँ कौन हो ?
न पाओगे कभी जा दृष्टि से यों भाग कर
तुम्हारा धन गया है आज आँगन में बिखर,
रुको पथ बीच, चुपके से मुझे उर में
बसाओ ना !

(8) चाँद सोता है !
सितारों से सजी चादर बिछाए चाँद सोता है !
बड़ा निश्चिन्त है तन से,
बड़ा निश्चिन्त है मन से,
बड़ा निश्चिन्त जीवन से,
किसी के प्यार का आँचल दबाए चाँद सोता है !
नयी सब भावनाएँ हैं,
नयी सब कल्पनाएँ हैं,
नयी सब वासनाएँ हैं,
हृदय में स्वप्न की दुनिया बसाए चाँद सोता है !
सुखद हर साँस है जिसकी,
मधुर हर आस है जिसकी,
सनातन प्यास है जिसकी,
विभा को वक्ष पर अपने लिटाए चाँद सोता है !

(9) कौन कहता है ...
कौन कहता है कि मेरे चाँद में जीवन नहीं है ?
चाँद मेरा खूब हँसता, मुसकराता है,
खेलता है और फिर छिप दूर जाता है,
कौन कहता है कि मेरे चाँद में धड़कन नहीं है ?
रात भर यह भी किसी की याद करता है,
देखना, अक्सर विरह में आह भरता है,
कौन कहता है कि मेरे चाँद में यौवन नहीं है ?
है सदा करता रहा संसार को शीतल,
है सदा करता रहा वर्षा-सुधा अविरल,
कौन कहता है कि मेरे चाँद में चन्दन नहीं है ?

शिशिर की रात (1)
शिशिर-ऋतु-राज, राका-रश्मियाँ चंचल !
कि फैला दिग-दिगन्तों में सघन कुहरा,
सजल कण-कण कि मानों प्यार आ उतरा,
प्रकृति-संगीत-स्वर बस गूँजता अविरल !
शिथिल तरु-डाल, सम्पुट फूल-पाँखुड़ियाँ,
रहीं चुपचाप गिर ये ओस की लड़ियाँ,
धवल हैं सब दिशाएँ झूमती उज्वल !
गगन के वक्ष पर कुछ टिमटिमाते हैं,
सितारे जो नहीं फूले समाते हैं,
सुखद प्रत्येक उर है नृत्यमय-झलमल !
धरा आकाश एकाकार आलिंगन,
प्रणय के तार पर यौवन भरा गायन,
फिसलता नीलवर्णी शून्य में आँचल !
विहग तरु पर अकेला कूक देता है,
किसी की याद में बस हूक देता है,
नयन प्रिय-पंथ पर प्रतिपल बिछे निर्मल !
सबेरा है कहाँ ? संसार सब सोया,
पवन सुनसान में बहता हुआ खोया,
अभी हैं स्वप्न के पल शेष कुछ कोमल !

(11) शिशिर की रात (2)
स्तब्ध, गीली, शुभ्र धुँधली रात है,
बह रहा शीतल शिशिर का वात है !
छा रहा कुहरा धुआँ-सा दूर तक,
छिप गया है चन्द्रमा का नूर तक !
हो गयी फीकी नशीली ज्योत्स्ना,
व्योम मानों शीत का बंदी बना !
घोंसलों से मूक चिड़ियाँ झाँकतीं,
नींद में डूबी हुईं कुछ आँकतीं !
शांत धरती पर खड़ी ज्यों भित्तियाँ
जम गयी प्रत्येक तरु की पत्तियाँ !
आज चंचल धूल भी चुपचाप है,
उच्च टूटे शृंग पर हिमताप है,
बर्फ़ का तूफ़ान आएगा अभी,
श्वेत चादर-सी बिछाएगा अभी !
बन्द कर लो ये झरोखे द्वार सब,
आज तो उमड़े हृदय का प्यार सब !
रात लम्बी है सबेरा दूर है,
क्या करें, यह मन बड़ा मजबूर है !
इस तरह अब और शरमाओ नहीं,
पास आओ, दूर यों जाओ नहीं !
रूठने का आज यह अवसर नहीं
ज़िन्दगी इस रात से बेहतर नहीं !

(12) बसंत
अंग-अंग में उमंग आज तो पिया,
बसंत आ गया !
दूर खेत मुसकरा रहे हरे-हरे,
डोलती बयार नव-सुगंध को धरे,
गा रहे विहग नवीन भावना भरे,
प्राण ! आज तो विशुद्ध भाव प्यार का
हृदय समा गया !
खिल गया अनेक फूल-पात से चमन ;
झूम-झूम मौन गीत गा रहा गगन,
यह लजा रही उषा कि पर्व है मिलन,
आ गया समय बहार का, विहार का
नया नया नया !

(13) छा गये बादल
तुम्हारी मद भरी मुसकान लख कर आ गये बादल !
तुम्हारे नैन प्यासे देखकर, ये छा गये बादल !
नवेली ! पायलों से बज रही झंकार है झन-झन,
सदा यह झूमता प्रतिपल सुघड़ सुन्दर सुकोमल तन,
असह है यह तुम्हारे रूप का अब और आकर्षण,
नयन बंदी हुए जिसको निमिष भर देखकर केवल !
चमकता शुभ्र गोरे-लाल फैले भाल पर झूमर,
तुम्हारे केश घुँघराले हवा में उड़ रहे फर-फर,
झुके जाते स्वयं के भार से प्रति अंग नव-सुन्दर,
फिसलता जा रहा है वक्ष पर से फूल-सा आँचल !
तुम्हारा गान सुन संसार सब बेहोश हो जाता,
बड़े सुख की नयी दुनिया बसा निश्चिन्त सो जाता,
तुम्हारी रागिनी में डूब मन-जलयान खो जाता,
बहाती हो अजानी स्नेह की धारा सरल छल-छल !
अमिट है याद से मेरी तुम्हारा वह मिलन-पनघट,
विकल होकर सुमुखि ! मैंने कहा जब, ‘हो बड़ी नटखट !’
उसी पल खुल गया था यह तुम्हारी लाज का घूँघट,
बड़े मनहर व मादक थे तुम्हारे बोल वे निश्छल !

(14) आ गया सावन
प्रीति के प्रिय गीत गाओ !
आ गया सावन सजीवन,
हैं बरसते प्यार के घन !
दूर खेतों में सरस सुन्दर
मुसकराती तृप्त हरियाली,
डाल पर कलियाँ हँसी चंचल
छलछलाकर रस भरी प्याली,
तुम न जाओ दूर मुझसे
प्राण में आकर समाओ !
वायु शीतल बह रही है,
कान में कुछ कह रही है !
स्वर मिलन-संगीत खग-उपवन,
भू-हृदय में हो रही धड़कन,
सब खिँचे जाते जगत के कण,
मूक मनहर सृष्टि-आकर्षण,
भावना ले द्रोह की तुम
यों विमुख होकर न जाओ !

(15) बरखा की रात
दिशाएँ खो गयीं तम में
धरा का व्योम से चुपचाप आलिंगन !
धरा ऐसी कि जिसने नव
सितारों से जड़ित साड़ी उतारी है,
सिहर कर गौर-वर्णी स्वस्थ
बाहें गोद में आने पसारी हैं,
समायी जा रही बनकर
सुहागिन, मुग्ध मन है और बेसुध तन !
कि लहरों के उठे शीतल
उरोजों पर अजाना मन मचलता है,
चतुर्दिक घुल रहा उन्माद
छवि पर छा रही निश्छल सरलता है,
खिँचे जाते हृदय के तार
अगणित स्वर्ग-सम अविराम आकर्षण !
बुझाने छटपटाती प्यास
युग-युग की, हुआ अनमोल यह संगम,
जलद नभ से विरह-ज्वाला
बुझाने को सघन होकर झरे झमझम,
निरन्तर बह रहा है स्रोत
जीवन का, उमड़ता आज है यौवन !

(16) मेघ और शशि
नभ में मेघों के टुकड़ों से
खेल रहा शशि आँख-मिचैनी !
शशि — सुन्दर, मोहक-आकर्षक
गोरे-गोरे अंगों वाला,
इतना तन्मय जाने क्यों, जब
मेघ-असुन्दर काला-काला ?
है क्या कोई जो बतलाए —
कैसे आज हुई अनहोनी !
दौड़ रहे हैं दोनों अविरल,
पर ज्यों ही बादल हँसता है,
तब उन्मादी-सा शशि घन की
युग बाहों में जा फँसता है,
कैसे कह सकता है कोई
किसको अपनी बाज़ी खोनी !
दोनों ने भग कर चरणों से
लगभग नभ को नाप लिया है,
थोड़ा-थोड़ा दोनों ने ही
आज लिया है और दिया है,
रे रहे अजर शशि-घन की यह
युग-युग जोड़ी लोनी-लोनी !

(17) निवेदन
सुप्त उर के तार फिर से
प्राण ! आकर झनझना दो !
नभ-अवनि में शुभ्र फैली चाँदनी,
मूक है खोयी हुई-सी यामिनी ;
और कितनी तुम मनोहर कामिनी !
आज तो बन्दी बनाकर
क्षणिक उन्मादी बनादो !
मद भरे अरुणाभ हैं सुन्दर अधर,
नैन हिरनी से कहीं निश्छल सरल,
देह ‘विद्युत, काँच, जल-सी’ श्वेत है,
डालियों-सी बाहु मांसल तव नवल,
आज जीवन से भरा नव
गीत मीठा गुनगुना दो !
स्वर्ग से सुन्दर कहीं संसार है,
हर दिशा से हो रही झंकार है,
विश्व को यह प्रेम री स्वीकार है,
चिर-प्रतीक्षित-मधु-मिलन
त्योहार संगिनि ! अब मना लो !

(18) चाँदनी में
नयी चाँदनी में नहालो, नहालो !
नयन बंद कर आज सोये सितारे,
भगे जा रहे कुछ किनारे-किनारे,
खुले बंध मन के हमारे-तुम्हारे,
किरण-सेज पर प्रिय ! प्रणय-निशि मनालो !
झकोरे मिलन-गीत गाने लगे हैं,
मधुर-स्वर हृदय को हिलाने लगे हैं,
नये स्वप्न फिर आज छाने लगे हैं,
हँसो और संकोच-परदा हटालो !
जवानी लहर कर जगी मुसकरायी,
सिमटती बिखरती चली पास आयी,
बड़े मान-मनुहार भी साथ लायी
सुमुखि ! अब स्वयं को न बरबस सँभालो !
भ्रमर को किसी ने गले से लगाया,
सरस-गंध मय अंक में भर सुलाया,
बड़े प्यार से चूम झूले झुलाया,
लजीली ! मुझे भी न बन्दी बना लो !

(19) ज्योत्स्ना
मेरे पास यह आती हुई इतरा रही है ज्योत्स्ना,
मुझको देख एकाकी, सतत भरमा रही है ज्योत्स्ना !
धीरे से मुँडेरों पर उतरती आ रही है ज्योत्स्ना,
प्यारा और मीठा गीत, रानी गा रही है ज्योत्स्ना !
मेरे टीन पर, छत पर बिखर कर फैलती है ज्योत्स्ना,
मेरे हाथ से, मुख से निडर बन खेलती है ज्योत्स्ना !
सोने भी नहीं देती, स्वयं भी जागती है ज्योत्स्ना,
होती जब सुबह, जाने कहाँ जा भागती है ज्योत्स्ना !
मेरे से न जाने क्यों नहीं यह बोलती है ज्योत्स्ना,
प्राणों में अनोखा प्यार-अमृत घोलती है ज्योत्स्ना !

(20) चाँद और तुम
अपनी छत पर खड़ी-खड़ी तुम
भी देख रही होगी चाँद !
शीतल किरनों की बरखा में
तुम भी आज नहाती होगी,
बड़री अँखियों से देख-देख
आकुल मन बहलाती होगी,
और अनायास कभी कुछ-कुछ
अस्फुट-स्वर में गाती होगी,
तुमको भी रह-रह कर आती
होगी आज किसी की याद !
अपने से ही मधु-बातें तुम
भी करने लग जाती होगी,
बाहें फैला अनजान किसी
को भरने लग जाती होगी,
फिर अपने इस पागलपन पर
अधरों में मुसकाती होगी,
तुममें भी उन मिलन-पलों का
छाया होगा री उन्माद !
तुम भी हलका करती होगी
यह भारी-भारी-सा जीवन,
तुम भी मुखरित करती होगी
यह सूना-सूना-सा यौवन,
खोयी-खोयी-सी व्याकुल बन
तुम चाह रही होगी बंधन,
तुमने भी इस पल सपनों की
दुनिया की होगी आबाद !

(21) बुरा क्या किया था ?
मैंने, बताओ, तुम्हारा बुरा क्या किया था ?
कोमल कली-सी अधूरी खिली थीं,
जब तुम प्रथम भूल मुझसे मिली थीं,
अनुभव मुझे भी नया ही नया था,
अपना, तभी तो, सदा को तुम्हें कर लिया था !
जीवन-गगन में अँधेरी निशा थी,
दोनों भ्रमित थे कि खोयी दिशा थी,
जब मैं अकेला खड़ा था विकल बन
पाया तुम्हें प्राण करते समर्पण,
उस क्षण युगों का जुड़ा प्यार सारा दिया था !
तुमने उठा हाथ रोका नहीं था,
निश्चिन्त थीं ; क्योंकि धोखा नहीं था,
बंदी गयीं बन बिना कुछ कहे ही
वरदान मानों मिला हो सदेही,
कितना सरल मूक अनजान पागल हिया था !

(22) कल रात
कल रात ज़रा भी तो नींद नहीं आयी !
सूनी कुटिया थी मेरी सूना था नभ का आँगन,
केवल जगता था मैं, या जगता विधु का भावुक मन ;
प्रतिपल बढ़ती थीं ज्यों ही जिसकी किरणें बाहें बन,
बढ़ती जाती थी रह-रह जाग्रत अन्तर की धड़कन ;
ना मद से बोझिल ये अँखियाँ अलसायीं !
स्वयं निकल कर स्वप्न-कथा की बढ़ती थीं घटनाएँ,
उड़ जाती थीं शैया पर नव-परिमल-अन्ध-हवाएँ,
लहर-लहर कर अँगड़ा कर जागीं सुप्त भावनाएँ,
निशि भर पड़ी रहीं चुपचुप मन को अपने बहलाए,
उन्मादी-सी बन न क्षणिक भी शरमायीं !
बिखर कभी कच वक्षस्थल पर उड़-उड़ लहराते थे,
या कि कभी सज-गुँथ कर दो वेणी लट बन जाते थे,
कमल-वृंत पर कभी भ्रमर अस्फुट राग सुनाते थे,
कोमल पत्ते बार-बार फूलों को सहलाते थे,
बनती मिटती रही अजानी परछाईं !
सच, कल रात ज़रा भी नींद नहीं आयी !

(23) जाओ नहीं
बीतते जाते
पहर पर आ पहर
पर, रात ! तुम जाओ नहीं,
जाओ नहीं !
प्यार करता हूँ तुम्हें
तुम पूछ लो झिलमिल सितारों से
कि जागा हूँ
उनींदे नींद से बोझिल पलक ले ;
क्योंकि मेरी भावना
तव रूप में लय हो गयी है !
मैं वही हूँ
एक दिन जिसको समर्पित था
किसी के रूप का धन
सामने तेरे !
तभी तो प्यार करता हूँ तुझे जी भर,
कि तूने ज़िन्दगी के साथ मेरे
वह पिया है रूप का आसव
कि जिसका ही नशा
चहुँ और छाया दीखता है !
इसलिए —
ठहरो अभी, ओ रात !
तुम जाओ नहीं
जाओ नहीं !

(24) विश्वास
यह विश्वास मुझे है —
एक दिवस तुम
मेरी प्यासी आँखों के सम्मुख
मधु-घट लेकर आओगी !
बदली बनकर छाओगी !
दरवाज़े को
गोरे-गोरे दर्पन-से हाथों से
खोल खड़ी हो जाओगी !
भोले लाल कपोलों पर
लज्जा के रँग भर-भर लाओगी !
नयनों की अनबोली भाषा में
जाने क्या-क्या कह जाओगी !
ज्यों चंदा को देख
चकोर विहँसने लगता है,
ज्यों ऊषा के आने पर
कमलों का दल खिलने लगता है,
वैसे ही देख तुम्हें कोई
चंचल हो जाएगा !
बीते मीठे सपनों की
दुनिया में खो जाएगा !
फिर इंगित से पास बुलाएगा,
धीरे से पूछेगा —
‘कैसी हो,
कब आयीं ?’
तुम क्या उत्तर दोगी ?
शायद, दो लम्बी आहें भर लोगी
आँखों पर आँचल धर लोगी !

(25) प्रतीक्षा
आज तक मैंने तुम्हारी
चाहना का गीत गाया,
और रह-रह कर तड़पती
याद में जीवन बिताया,
क्या प्रतीक्षा में सदा ही
मैं व्यथा सहता रहूंगा ?
स्वप्न में देखा कभी यदि,
कह उठा, ‘बस आज आये’ !
दिवस बीता, रात बीती
पर, न सुख के मेघ छाये,
कल्पना में ही सदा क्या
मैं विकल बहता रहूंगा ?
प्राण उन्मन, भग्न जीवन,
मूक मेरी आज वाणी,
याद आती है विगत युग
की वही मीठी कहानी,
क्या अभावों की कथा ही
मैं सदा कहता रहूंगा ?

(26) कोई शिकायत नहीं
तुमसे मुझे आज कोई शिकायत नहीं है !
विवश बन, नयन भेद सारा छिपाये हुए हैं,
मिलन-चित्र मोहक हृदय में समाये हुए हैं,
बहुत सोचता हूँ, बहुत सोचता हूँ,
कहीं दूर का पथ नया खोजता हूँ,
पर, भूलने की शुभे ! एक आदत नहीं है !
कभी देख लेता मधुर स्वप्न जाने-अजाने,
उसी के नशे में तुम्हें पास लगता बुलाने,
बुरा क्या अगर मुसकराता रहूँ मैं,
नयी एक दुनिया बसाता रहूँ मैं ?
सच, यह किसी भी तरह की शरारत नहीं है !
अकेली लता को कभी वृक्ष लेता लगा उर,
कमलिनी थकी-सी भ्रमर को सुखद अंक में भर,
सिमटती गयी, चुप लजाती रही जब,
बड़ी याद मुझको सताती रही तब,
सौन्दर्य जग का किसी की अमानत नहीं है !

(27) विरह का गान
मिल गया तुमको, तुम्हारा प्यार !
ज़िन्दगी मेरी अमा की रात है,
एक पश्चाताप की ही बात है,
आज मेरा घर हुआ वीरान है,
मूक होठों पर विरह का गान है ;
पर, खुशी है —
मिल गया तुमको मधुर संसार !
भाग्य में मेरे बदा था शून्य-जल
मधु-सुधा भी बन गया तीखा गरल,
पास की पहचान अब कड़ियाँ बनीं,
वेदनामय गत मिलन-घड़ियाँ बनीं,
पर, खुशी है —
मिल गया तुमको नया शृंगार !
ज़िन्दगी में आँधियाँ ही आँधियाँ,
स्नेह बिन कब तक जलेगा यह दिया !
आ रहा बढ़ता भयावह ज्वार है,
हाथ में आकर छिना पतवार है,
पर, खुशी है —
मिल गया तुमको सबल आधार !

(28) दीप जला दो !
मेरे सूने घर में —
युग-युग का अँधियारा छाया है
जीवन-ज्योति जली थी — सपना है;
तुममें जितना स्नेह समाया है
तब समझूंगा — मेरा अपना है
यदि ऊने अन्तर में तुम दीप जला दो !
कल्पों से यह जीवन क्या ? मरुथल
बना हुआ है जग का ऊष्मा-घर,
एकाकी पथ, फिर उस पर मृग-जल
तब मानूंगा तुममें रस-सागर
यदि मेरे ऊसर-मन को नहला दो !
पल-पल पर आना-जाना रहता
केवल रेतीले तूफ़ानों का,
बनता क्या ? जो है वह भी ढहता ;
समझूंगा मूल्य तुम्हारे गानों का
यदि सूखे सर-से मन को बहला दो !
सम्भव हो न सकेगा जीवित रहना
पल भर भी तन-मन मोम-लता का
है बस मूक प्रहारों को सहना ;
समझूंगा जादू कोमलता का
यदि पाहन-उर के व्रण सहला दो !

(29) धन्यवाद
दो क्षण सम्पुट अधरों को जो
तुमने दी खिलते शतदल-सी मुसकान ;
कृपा तुम्हारी, धन्यवाद !
जग की डाल-डाल पर छाया
था मधु-ऋतु का वैभव,
वसुधा के कन-कन ने खेली
थी जब होली अभिनव,
मेरे उर के मूक गगन को
गुंजित कर जो तुमने गाया मधु-गान ;
कृपा तुम्हारी, धन्यवाद !
पूनम की शीतल किरनों में
वन-प्रांतर डूब गये,
जब जन-जन मन में सपनों के
जलते थे दीप नये,
युग-युग के अंधकार में तुम
मेरे लाये जो जगमग स्वर्ण-विहान ;
कृपा तुम्हारी, धन्यवाद !
जब प्रणयोन्माद लिए बजती
मुरली मनुहारों की,
घर-घर से प्रतिध्वनियाँ आतीं
गीतों-झनकारों की,
दो क्षण को ही जो तुमने आ
बसा दिया मेरा अंतर-घर वीरान ;
कृपा तुम्हारी, धन्यवाद !
आ जाती जीवन-प्यार लिए
जब संध्या की बेला,
हर चैराहे पर लग जाता
अभिसारों का मेला,
दुनिया के लांछन से सोया
जगा दिया खंडित फिर मेरा अभिमान ;
कृपा तुम्हारी धन्यवाद !

(30) नींद
आज मेरे लोचनों में
नींद घिरती आ रही है !
व्योम से आती हुई रजनी
मृदुल माँ-वत् करों से थपकियाँ देती,
नव-सितारों से जड़ित आँचल
बिछा है, आँख सुख की झपकियाँ लेतीं,
चन्द्र-मुख से सित-सुधा की
धार झरती आ रही है !
सुन रहा हूँ स्नेह का मधुमय
तुम्हारा गीत कुसुमों और डालों से,
प्रति-ध्वनित है आज पत्थर से
वही संगीत सरिता और नालों से
रागिनी उर में सुखद मद
भाव भरती जा रही है !
बन्द पलकों के हुए पट, पर
दिखायी दे रहा यह, पी रहा हूँ मैं,
नव पयोधर से किसी का दूध
शीतल, भान भी है यह, कहाँ हूँ मैं,
स्वस्थ मांसल देह-छाया
झूम गिरती आ रही है !

(31) पूनम
पीपल के पीछे से चुपचुप
झाँक रहा चंदा पूनम का !
इतना भोला है कि उसे यह
ज्ञात न, कोई देख रहा है,
चारों ओर नयी आभा से
पूरित शीतल सिंधु बहा है,
दूर क्षितिज पर शंकाकुल मुख
गोरा-गोरा शशि का दमका !
इतना व्याकुल है कि अभी से
खोल द्वार नभ के, भरमाया,
काली रात न होने भी दी
सबके सम्मुख बाहर आया,
और न जाने रोक रहा क्यों
गिरने वाला परदा तम का !

(32) झलकता रूप
शशि पर घूँघट बादल का है !
घूँघट इतना झीना जिसमें
है शरमाया मुख प्रतिबिम्बित,
दो पागल कजरारी अँखियाँ
संधान किये नभ पर अंकित,
सीमित रह न सका किंचित भी
उभर-उभर मधु-घट छलका है !
इतना छलका कि सितारों-से
छींटे उड़-उड़ कर फैल गये,
मानों उर से बाहर होकर
बिखरे हों अगणित भाव नये,
या स्वर्ण-अलंकृत छोर गगन
में फहराते आँचल का है !

(33) समर्पण
ओ राकापति ! देख तुम्हें सब
रूप-गर्विताएँ लज्जित हैं !
सौन्दर्य सभी का फीका-सा
लगता है, जब तुम आते हो,
अपनी शीतल नव चाँदी-सी
आभा ले नभ में छाते हो,
जाने कितना स्वर्गिक-वैभव
अंगों में, उर में संचित है !
केवल मुसकान-किरन पर ही
जग का सब वैभव न्यौछावर,
बलिहारी जाता है कवि का
तन-मन, ओ नभवासी सुंदर !
देख तुम्हें जग के कन-कन का
अंतर-आनंद असीमित है !

(34) बड़ा कठिन
हिमकर से आँख चुराना बड़ा कठिन !
यह जब अपनी नव-आभा को
सूने नभ में फैलाता है,
तब भावुक अंतर का सागर
सुख-लहरों से भर जाता है,
पर, पल भर भी
हिमकर को पास बुलाना बड़ा कठिन !
चंचल अँखियाँ जब निंदिया के
पलने पर चढ़ सो जाती हैं,
जब क्षण भर में तन-मन की धन-
राशि परायी हो जाती है,
तब भी, सचमुच
हिमकर की याद भुलाना बड़ा कठिन !

(35) कलानिधि
रे मूक कलानिधि के मुख पर
मोहक सपनों की छाया है !
दिन में सोता है
निशि भर जगता है,
जिससे अलसाया खोया-खोया-सा
हरदम लगता है,
पहचान नहीं पाओगे तुम
कुछ अद्भुत स्वर्गिक माया है !
पहले बढ़ता, पर
फिर घट जाता है,
जिससे पल भर भी यह नहीं किसी के
वश में आता है,
समझें क्या ? यह अस्सी घाटों
का पानी पीकर आया है !

(36) आकुल-अन्तर
आज है बेचैन मन
कुछ बात करने को प्रिये !
एकरस इतनी विलंबित
मौनता अब हो रही है भार,
जब सतत लहरा रहा शीतल
रुपहला स्निग्ध पारावार,
हो रहा बेचैन मन
उन्मुक्त मिलने को प्रिये !
शुष्क नीरस सृष्टि में जब
छा गये चारों तरफ़ नव बौर,
भाग्य में मेरे अरे केवल
लिखा है क्या अकेला ठौर ?
हो रहा बेचैन मन
कुछ भेद कहने को प्रिये !

(37) मेरा चाँद...
मेरा चाँद मुझसे दूर है !
सूने व्योम में
रोती अकेली रात है,
चारों ओर से
तम की लगी बरसात है,
इसलिए ही आज
निष्प्रभ हर कुमुद का नूर है !
किस एकांत में
जाकर तड़पता है सरल,
भय है प्राण को
भारी, न पीले रे गरल,
क्योंकि ऊँचे भव्य
घर में क़ैद है, मजबूर है !
ये आँखें क्षितिज
पर आश से, विश्वास से
निश्छल देखतीं
हर रश्मि को उल्लास से,
क्योंकि यह है सत्यµ
उसमें चाह मिलन ज़रूर है !

(38) अमावस की अँधेरी में
नभ के किन परदों के पीछे आज छिपा है चाँद ?
मैं पूछ रहा हूँ तुमसे ओ
नीरव जलने वाले तारो !
मैं पूछ रहा हूँ तुमसे ओ
अविरल बहने वाली धारो !
सागर की किस गहराई में आज छिपा है चाँद ?
नभ के किन परदों के पीछे आज छिपा है चाँद ?
मैं पूछ रहा हूँ तुमसे ओ
मन्थर मुक्त हवा के झोंको !
जिसने चाँद चुराया मेरा
उसको सत्वर भगकर रोको !
नयनों से दूर बहुत जाकर आज छिपा है चाँद ?
नभ के किन परदों के पीछे आज छिपा है चाँद ?
मैं पूछ रहा हूँ तुमसे ओ
तरुओ ! पहरेदार हज़ारों,
चुपचाप खड़े हो क्यों ? अपने
पूरे स्वर से नाम पुकारो !
दूर कहीं मेरी दुनिया से आज छिपा है चाँद !
नभ के किन परदों के पीछे आज छिपा है चाँद ?

(39) मिल गये थे हम
ज़िन्दगी की राह पर जब दो-क्षणों को
मिल गये थे हम,
एकरसता मौनता का बोझ भारी
हो गया था कम !
उड़ गया छाया थकावट का, उदासी
का धुआँ गहरा,
पा तुम्हें मन-प्राण मरुथल पर उठी थी
रस-लहर लहरा !
पर, बनी मंज़िल मनुज की क्या कभी भी —
राह जीवन की ?
क्या सदा को छा सकीं नभ में घटाएँ
सुखद सावन की ?
आज जाना है विरल बहुमूल्य कितनी
प्यार की घड़ियाँ,
गूँजती हैं आज भी रह-रह तुम्हारे
गीत की कड़ियाँ !

(40) ग्रहण
आज मेरे सरल चाँद को किस
ग्रहण ने ग्रसा है ?
आज कैसी विपद में विहंगम
गगन का फँसा है ?
मौन वातावरण में बिखरतीं
उदासीन किरणें,
रंग बदला कि मानों उठी हो
घटा घोर घिरने !
दूर का यह अँधेरा सघन अब
निकट आ रहा है,
गीत दुख का, बड़ी वेदना का
पवन गा रहा है !
अश्रु से भर खड़े मूक बनकर
सभी तो सितारे,
हो व्यथित यह सतत सोचते हैं
कि किसको पुकारें ?
साथ हूँ मैं सुधाधर तुम्हारे
मुझे दुख बताओ,
हूँ तुम्हारा, रहूँगा तुम्हारा
न कुछ भी छिपाओ !

(41) विवशता
दूर गगन से देख रहा शशि !
जगते-जगते बीत गयी है
आधी रात,
पर, पूरी हो न सकी अस्फुट
मन की बात,
भरे नयन से देख रहा शशि !
ऊपर से तो शांत दिखायी
देते प्राण,
पर, भीतर क़ैद बड़ा यौवन
का तूफ़ान,
विरह-जलन से देख रहा शशि !
सारे नभ में बिखरी पड़ती
है मुसकान,
पर, कितना लाचार अधूरा
है अरमान,
बोझिल तन से देख रहा शशि !

(42) ओ चाँद !
ओ चाँद सलोने ! अम्बर से
क्या कभी न नीचे उतरोगे ?
बंद करो उन्मत्त ! चकोरी
का और चुराना भोला मन,
दूर करो नभ के जादूगर !
मचली लहरों का पागलपन,
शांत करो जिज्ञासा कवि के
उर में बढ़ने वाली प्रतिक्षण,
ओ चाँद अनोखे ! जीवन का
चुप-चुप कब भेद बताओगे ?
शायद न मिटेगी युग-युग तक
यह दिन-दिन बढ़ती सुन्दरता,
शायद न मिटेगी युग-युग तक
यह निज चरणों की निर्भरता,
शायद न मिटेगी युग-युग तक
यौवन की अल्हड़ चंचलता,
ओ चाँद अकेले ! बाहों में
क्या कभी मुझे भी भर लोगे ?

(43) आकर्षण
जितने पास आता हूँ तुम्हारे इंदु
उतने ही सँभल तुम दूर जाते हो !
पहले ही बता दो ना
पहुँचने क्या नहीं दोगे ?
पहले ही अरे कह दो
कि मेरा प्यार ना लोगे !
जितना चाहता हूँ ओ ! तुम्हें राकेश
उतने ही बदल तुम दूर जाते हो !
आओगे न क्या मेरे
कभी एकांत जीवन में ?
क्या अच्छा नहीं लगता
विहँसना स्नेह-बंधन में ?
जितना चाहता हूँ बाँधना ओ सोम !
उतने बन विकल तुम दूर जाते हो !
ऊपर से खड़े होकर
निरंतर देखते क्यों हो ?
किरणें रेशमी अपनी
सँजो कर फेंकते क्यों हो ?
जैसे ही अकिंचन मैं उलझता भूल
वैसे ही सरल ! तुम दूर जाते हो !

(44) मृग-तृष्णा
चाँद से जो प्यार करता है —
वह अकेला ज़िन्दगी भर आह भरता है !
ऐसा नहीं होता अगर,
तो क्यों कहा जाता कलंकित रे ?
मधुकर सरीखा उर, तभी
तो कर न सकता स्नेह सीमित रे !
चाँद से जो प्यार करता है —
नष्ट वह अपना मधुर संसार करता है !
ऐसा नहीं होता अगर,
तो दूर क्यों इंसान से रहता ?
नीरस हृदय है ; इसलिए
ना बात मीठी भूलकर कहता,
चाँद से जो प्यार करता है —
कंटकों को जानकर गलहार करता है

(45) चाँद और पत्थर (1)
चाँद तुम पत्थर-हृदय हो !
व्यर्थ तुमसे प्यार करना,
व्यर्थ है मनुहार करना,
व्यर्थ जीवन की सुकोमल भावनाओं को जगाना,
जब न तुम किंचित सदय हो !
व्यर्थ तुमसे बात करना,
और काली रात करना,
प्राणघाती, छल भरा, झूठा तुम्हारा स्नेह बंधन ;
चाहते अपनी विजय हो !
फेंक कर सित डोर गुमसुम,
देखते इस ओर क्या तुम ?
स्वर्ग के सम्राट, नभ-स्वच्छन्द-वासी ! रे तुम्हें क्या ?
सृष्टि हो चाहे प्रलय हो !
सत्य आकर्षण नहीं है,
सत्य मधु-वर्षण नहीं है,
सत्य शीतल रुपहली मुसकान अधरों की नहीं है !
तुम स्वयं में आज लय हो

(46) चाँद और पत्थर (2)
चाँद तुम पत्थर नहीं हो !
है तुम्हारा भी हृदय कोमल,
स्नेह उमड़ा जा रहा छल-छल
हो बड़े भावुक, बड़े चंचल,
इसलिए, मेरे निकट हो,
प्राण से बाहर नहीं हो !
राह अपनी चल रहे हो तुम,
आँधियों में पल रहे हो तुम,
शीत में हँस गल रहे हो तुम
इसलिए कहना ग़लत है —
‘तुम मनुज-सहचर नहीं हो !’
हो किसी के प्यार बन्धन में,
हो किसी की आश जीवन में,
गीत के स्वर हो किसी मन में,
सोच इतना ही मुझे है —
हाय, धरती पर नहीं हो !

(47) न जाने क्यों...
मुझे मालूम है यह चाँद मुझको मिल नहीं सकता,
कभी भी भूलकर स्वर्गिक-महल से हिल नहीं सकता,
चरण इसके सदा आकाशगामी हैं,
रुपहले-लोक का यह मात्र हामी है,
न जाने क्यों उसे फिर भी हृदय से प्यार करता हूँ !
न जाने क्यों उसी की याद बारंबार करता हूँ !
मुझे मालूम है यह चाँद बाहों में न आएगा,
कभी भी भूलकर मुझको न प्राणों में समाएगा,
अमर है कल्पना का लोक रे इसका,
नहीं पाना किसी के हाथ के बस का,
न जाने क्यों उसी पर व्यर्थ का अधिकार करता हूँ !
न जाने क्यों उसे फिर भी हृदय से प्यार करता हूँ !
मुझे मालूम है यह चाँद कैसे भी न बोलेगा,
कभी भी भूलकर अपने न मन की गाँठ खोलेगा,
सरल इसके सुनयनों की न भाषा है,
समझने में निराशा ही निराशा है,
न जाने क्यों उसी से भावना-व्यापार करता हूँ !
न जाने क्यों उसे फिर भी हृदय से प्यार करता हूँ !
मुझे मालूम है यह चाँद वैभव का पुजारी है,
बड़ी मनहर गुलाबी स्वप्न दुनिया का विहारी है,
वे मेरे पंथ पर काँटे बिछे अगणित,
अभावों की हवाएँ आ गरजती नित,
न जाने क्यों उसी से राह का शृंगार करता हूँ !
न जाने क्यों उसे फिर भी हृदय से प्यार करता हूँ !

(48) स्मृति की रेखाएँ
प्राणों में प्रिय ! आज समाया
अभिराम तुम्हारा आकर्षण !
जो कभी न मिटने पाएगा,
जो कभी न घटने पाएगा,
तीव्र प्रलोभन के भी सम्मुख
जो कभी न हटने पाएगा,
शाश्वत केवल यह, जगती में
मनहर प्राण ! तुम्हारा बंधन !
यदि भरलूँ मुसकान तुम्हारी,
और चुरा लूँ आभा प्यारी,
तो निश्चय ही बन जाएगी
मेरी दुनिया जग से न्यारी,
तुमने ही आज किया मेरा
जगमग सूना जीवन-आँगन !
अनुराग तुम्हारा झर-झर कर
जाए न कभी मुझसे बाहर,
साथ तुम्हारे रहने के दिन
सच, याद रहेंगे जीवन भर,
स्नेह भरे उर से करता हूँ
मैं सतत तुम्हारा अभिनन्दन !

(49) साथ
कभी क्या चाँद का भी साथ छूटा है ?
रहेंगे हम जहाँ जाकर
वहाँ यह चाँद भी होगा,
हमारे प्राण का जीवित
वहाँ उन्माद भी होगा,
बताओ तो किसी ने आज तक क्या
चाँदनी का रूप लूटा है ?
हमारे साथ यह सुख के
दिनों में मुसकराएगा,
दुखी यह देखकर हमको
पिघल आँसू बहाएगा,
बिछुड़कर दूर रहने से कभी भी
प्यार का बंधन न टूटा है !
हमारी नींद में आ यह
मधुर सपने सजाएगा,
थके तन पर बड़े शीतल
पवन से थपथपाएगा,
निरंतर एक गति से ही बहेगा
स्नेह का जब स्रोत फूटा है !

(50) चाँद, मेरे प्यार!
ओ चाँद !
तुमको देखकर
बरबस न जाने क्यों
किसी मासूम मुखड़े की
बड़ी ही याद आती है !
फिर यह बात मन में बैठ जाती है
कि शायद तुम वही हो
चाँद, मेरे प्यार !
यह वही मुख है
जिसे मैंने हज़ारों बार चूमा है
कभी हलके,
कभी मदहोश ‘आदम’ की तरह !
यह वही मुख है
हज़ारों बार मेरे सामने जो मुसकराया है,
कभी बेहद लजाया है !
हुआ क्या आज यदि
मेरी पहुँच से दूर हो,
मुख पर तुम्हारे अजनबी छाया
चिढ़ाने का नवीन सरूर हो ;
जैसे कि फिर तो पास आना ही नहीं !
क्या कह रहे हो ?
ज़ोर से बोलो —
‘कि पहचाना नहीं !’
हुश !
प्यार के नखरे
न ये अच्छे तुम्हारे,
अब पकड़ना ही पड़ेगा
पहुँच किरणों की सहारे,
देखता हूँ, और कितनी दूर भागोगे,
मुझे मालूम है जी,
तुम बिना इसके न मानोगे !

(51) दुराव
चाँद को छिप-छिप झरोखों से सदा देखा किया
और अपनी इस तरह आँखें चुरायीं चाँद से !
चाँद को झूठे सँदेसे लिख सदा भेजा किया
और दिल की इस तरह बातें छिपायीं चाँद से !
चाँद को देखा तभी मैं मुसकराया जानकर
और उर का यों दबाया दर्द अपना चाँद से !
लाख कोशिश की मगर मैं चाँद को समझा नहीं
और पल भर कह न पाया स्वर्ण-सपना चाँद से !
भूल करता ही गया अच्छा-बुरा सोचा नहीं
प्यार कर बैठा किसी के, चिर-धरोहर, चाँद से !
युग गुज़रते जा रहे खामोश, मैं भी मौन हूँ ;
क्योंकि अब बातें करूँ किस आसरे पर चाँद से !

(52) यह न समझो
यह न समझो कूल मुझको मिल गया
आज भी जीवन-सरित मझधार में हूँ !
प्यार मुझको धार से
धार के हर वार से,
प्यार है बजते हुए
हर लहर के तार से,
यह न समझो घर सुरक्षित मिल गया
आज भी उघरे हुए संसार में हूँ !
प्यार भूले गान से,
प्यार हत अरमान से,
ज़िन्दगी में हर क़दम
हर नये तूफ़ान से,
यह न समझो इंद्र-उपवन मिल गया
आज भी वीरान में, पतझार में हूँ !
खोजता हूँ नव-किरन
रुपहला जगमग गगन,
चाहता हूँ देखना
एक प्यारा-सा सपन,
यह न समझो चाँद मुझको मिल गया
आज भी चारों तरफ़ अँधियार में हूँ !

(53) तुमसे मिलना तो...
तुमने मिलना तो अब दूभर !
मूक प्रतीक्षा में कितने युग बीत गये,
चिर प्यासी आँखों के बादल रीत गये,
एकाकी जीवन के निर्जन
पथ पर केवल पतझर-पतझर !
देख रहा हूँ, सभी अपरिचित और नये,
वे जाने-पहचाने सपने कहाँ गये ?
ढूँढ़ चुका अविराम सजग
कोना-कोना, जल-थल-अम्बर !

(54) आत्म-स्वीकृति
तुम इतनी पागल नहीं बनो !
जिसको समझ रही हो प्रतिपल
सरल-तरल भावों का निर्झर,
वह बोझिल दर्द भरा वंचित
चिर एकाकी सूना ऊसर,
अपने मन को वश में रक्खो
यों इतनी दुर्बल नहीं बनो !
क्यों बड़ी लगन से देख रहीं —
यह पत्थर है, मोम नहीं है,
अरी चकोरी ! सुबह-सुबह का
सूरज है, यह सोम नहीं है,
यों किसी अपरिचित के सम्मुख
तुम इतनी निश्छल नहीं बनो !
यह मेघ नहीं सुखकर शीतल
केवल उष्ण धुएँ का बादल,
इसमें नादान अरे ! रह-रह
खोजो मत जीवन का संबल,
सब मृग-जल है, इसके पीछे
तुम इतनी चंचल नहीं बनो !
बड़े जतन से सजा रही हो
तुम जिस उजड़ी फुलवारी को,
कैसे लहराये वह, समझो
तनिक हृदय की लाचारी को,
अश्रु-भरी आँखों में बसकर
शोभा का काजल नहीं बनो !

(55) प्रेय
प्यार की जिसको मिली सौगात है
ज़िन्दगी उसकी सजी बारात है !
भाग्यशाली वह ; उसी के ही लिए
सृष्टि में मधुमास है, बरसात है !



अध्ययन:
1 प्रणय की मधु वर्षा / डा. किरणशंकर प्रसाद / ‘महेंद्र भटनागर-समग्र’ µ खंड 1
2 ‘मधुरिमा’ / श्रीमती ममता मिश्रा / ‘डा. महेंद्र भटनागर की काव्य-साधना’
3 ‘निर्वैयक्तिक धरातल’ / डा. राधकृष्ण सहाय / ‘कवि महेंद्र भटनागर का रचना-संसार’
4 ‘डा. महेंद्र भटनागर का कवि-व्यक्तित्व’ / सं. डा. रवि रंजन / आलेख क्र. 11 से 17 तक