Dr. Mahendra Bhatnagar Ki Kavya-Srishti

सोमवार, 25 फ़रवरी 2008

MRITU-BODH ; JEEWAN-BODH / DEATH-PERCEPTION ; LIFE-PERCEPTION

मृत्यु-बोध : जीवन-बोध
— डॉ. महेंद्रभटनागर

(1) आभार
मृत्यु है;
मृत्यु निश्चित है, / अटल है ,
जीवन इसलिए ही तो
इतना काम्य है !
इसलिए ही तो जीवन-मरण में
इतना परस्पर साम्य है !

मृत्यु ने ही
जीवन को दिया सौन्दर्य
इतना — अशेष - अपार !
मृत्यु ने ही
मानव को दिया
जीवन-कला-सौकर्य
इतना — सिँगार - निखार !

नि:संदेह
है स्वीकार्य नश्वरता,
मर्त्य दर्शन / भाव
प्रतिपल मृत्यु-तनाव !
आभार
मृत्यु के प्रति
प्राण का आभार !
 ࡝
(2) आभार; पुन:
मौत ने ज़िन्दगी को बड़ा ख़ूबसूरत बना दिया,
लोक को, असलियत में सुखद एक जन्नत बना दिया!
अर्थ हम प्यार का जान पाये, तभी तो सही-सही,
आदमी को अमर देव से; और उन्नत बना दिया !
 
(3) काल-चक्र
निर्मम है काल-चक्र
अतिशय निर्मम !
जिसके नीचे जड़-जंगम
क्रमश: पिसता और बदलता
हर क्षण, हर पल !
थर-थर कँपता भू-मंडल !

अदृश्य — नि:शब्द किये
अविरत घूम रहा यह काल-चक्र
निर्विघ्न ... निर्विकार !
इसके सम्मुख
स्थिरता का कोई अस्तित्व नहीं,
इसकी गति से सतत नियन्त्रित
जीवन और मरण — धरती और गगन !
 
(4) निरुद्विग्न
मृत्यु से डरते रहेंगे
तो हो जायगा
जीना निरर्थक !
भार बोझिल, शुष्क नीरस,
निर्विषय मानस
अत: सार्थक तभी जीवन,
मरण-डर मुक्त हो हर क्षण,
अशुभ है नाम लेना
मृत्यु-भय का या प्रलय का
इसी कारण !
 
(5) चिन्तन
मृत्यु —
एक प्रश्न- चिह्न (?)
भेद जानना —
दुरूह ही नहीं;
मनुष्य के लिए अ-ज्ञात सब !

देह पंच-तत्व में विलीन
सब बिखर-बिखर
समाप्त!
प्राण लौटना नहीं;
न सम्भवी पुन: सचेत कर सकें,
रहस्य ज्ञात कर सकें
स्वयं जब नहीं
मरण - प्रहेलिका / अजब प्रहेलिका !
अबूझ आज तक / गज़ब प्रहेलिका !
प्रयत्न व्यर्थ
मृत्यु-अर्थ व्यक्त हो सके;
जटिल कठिन विचारणा
 
(6) पहेली
क्या कहा ?
तन रहने योग्य नहीं रहा;
इसलिए ...
आत्मन ! तुम चले गये !
नये की चाह में
किसी राह में;
कहाँ ? लेकिन कहाँ ??
अज्ञात है / सब अज्ञात है !
घुप अँधेरी रात है,
रहस्यपूर्ण हर बात है !
प्रश्न— किसका है ?
उत्तर— किसका है ?
 
(7) सचाई
मृत्यु नहीं होती
तो ईश्वर का भी अस्तित्व नहीं होता,
कभी नहीं करता मानव
प्रारब्धवाद से समझौता !

ईश्वर प्रतीक है / ईश्वर प्रमाण है
मानव की लाचारी का,
मृत्युपरान्त तैयारी का!

स्वर्ग-नरक का
सारा दर्शन-चिन्तन कल्पित है,
मानव
मृत्यु-दूत की आहट से
हर क्षण आतंकित है, रह-रह रोमांचित है !
मालूम है उसे
'मृत्यु सुनिश्चित है !'
इसीलिए पग-पग पर आशंकित है !
यही नहीं
तथाकथित मर्त्यलोक से
नितान्त अपरिचित है वह,
अत: तभी तो जाता है
ईश्वर की शरण में
पाने चिर-शान्ति मरण में !
अत: तभी तो गाता है
एक-मात्र—
'राम नाम सत्य है !'
अरे, जन्म-मृत्यु कुछ नहीं
उसी का
विनोद - क्रूर कृत्य है !
 
(8) मृत्यु-रूप
मृत्यु प्राकृतिक हो
या आकस्मिक दुर्घटना हो
निष्कर्ष एक है
अन्त-कर्म जीवन का,
होना चेतनहीन सक्रिय तन का,
सदा-सदा को होना सुप्त हृदय-स्पन्दन का !
दोनों ही
तथाकथित विधि-लेख हैं,
भाग्य-लिपि अदृष्ट अमिट रेख हैं !
लेकिन — जीवन-वध
चाहे आत्म-हनन हो,
या हत्या-भाव-वहन हो,
या व्यक्ति और समाज रक्षा हेतु
दरिन्दों का दमन-दलन हो,
नहीं मरण;
है प्राण-हरण.
भले ही अंत एक —
मृत्यु !
सही मृत्यु या अकाल मृत्यु !
 
(9) निष्कर्ष
मृत्यु —
प्रश्न-चिह्न(?)
स्थिर … अनुत्तरित ….अड़ा,
विरूद्ध बन खड़ा !
पर, नहीं
मनुष्य हार मानना,
तनिक न ईश कल्पना
बचाव में,
सवाल के जवाब में,
नहीं, नहीं !
रहस्य मृत्यु का
निरावरण ... प्रकट
अवश्य
अवश्य
एक दिन !
(10) जन्म-मृत्यु
मृत्यु :
जन्म से बँधी
अटूट डोर है,
जन्म :
एक ओर;
मृत्यु :
दूसरा प्रतीप छोर है !
जन्म - एक तट
मरण - विलोम तीर;
जन्म :
हर्ष क्यों ?
मृत्यु :
पीर ... !
क्यों ?
जन्म-मृत्यु
जब समान हो ?
एक / रूपवान;
दूसरा / महानिधान है !
जन्म
सू त्रपात है,
मृत्यु
नाश है : निघात है !
जन्म ... ज्ञात,
मृत्यु ... अ-ज्ञात !
जन्म : आदि,
मृत्यु : अन्त है !
जन्म : श्रीगणेश,
मृत्यु : क्षिति दिगन्त है !
जन्म : हाँ, हयात है,
मृत्यु : हा! विघात है !
जन्म : नव-प्रभात है,
मृत्यु : घोर रात है !
(11) युग्म
चारों ओर फैली
मरुभूमि रेतीली
बुझते दीपक लौ-सी
भूरी
पिंगल।
पीत-हरित
जल-रहित
ढलती उम्र
मरणासन्न !
लेकिन
अनगिनती
लहराते ... हरिआते
मरुद्वीप !
कँटीले
पत्तों रहित
पनपते पेड़
जीवन-चिन्ह
पताकाएँ !
जलाशय
आशय ... जीवन-द
प्राणद !
(12) विलोम
जीवन : हर्षोल्लास
मृत्यु : अंतिम निश्वास
मधुर राग / चीत्कार !
शुभ-कृत / हाहाकार !
(13) समान
प्रात भी अरुण
सान्ध्य भी अरुण
प्रात-सान्ध्य एक हो।
जन्म पर रुदन
मृत्यु पर रुदन
जन्म-मृत्यु एक हो।
यही
सही विवेक है,
यथार्थ ज्ञान है,
व्यर्थ
और ... और ध्यान है।
(14) साखी
इतने उदास क्यों होते हो ?
होशोहवास क्यों खोते हो ?
जीवन - बहुमूल्य है; सही
है अटल मृत्यु; क्यों रोते हो ?
(15) कामना
जिएँ समस्त शिशु तरुण
अकाल मृत्यु है करुण।
(16) वास्तव
''मृत्यु
जन्म है
पुन: - पुन:
आत्म - तत्व का।''
असत्य; इस विचार को
कि सत्य मान लें ?
अंध मान्यता
तर्क हीन मान्यता !
प्राण / पंच - तत्व में विलीन,
अंत / एक सृष्टि का,
अंत / एक व्यक्ति का,
एक जीव का।
कहीं नहीं
यहाँ ... वहाँ।
सही यही
कि लय सदैव को।
न है नरक कहीं,
न स्वर्ग है कहीं,
यथार्थ लोक सत्य है।
मृत्यु सत्य है,
जन्म सत्य है।
(17) जीवन-दर्शन
बहिर्गति
भौतिक स्पन्दन;
अन्तर-गति
जीवन।
जीवन गति का वाहक
मोक्ष
सतत नियन्त्रक
मोक्ष
जब - तक
गतिशील रहेगा जीवन
इतिहास रचेगा
मानव-मन
मानव-तन।
लय हो न कभी;
जीवन लयवान रहे,
कण-कण गतिमान रहे।
लयगत होना
अन्तर गति खोना।
(18) चरैवेति
संघर्षों-संग्रामों से
जीवन की निर्मिति,
होना निष्क्रिय
ज्ञापक - आसन्न मरण का,
थमना जीवन की परिणति।
जीवन : केवल गति,
अविरति गति !
क्रमश: विकसित होना,
होना परिवर्तित
जीवन का धारण है !
स्थिरता
प्राण-विहीनों का
स्थापित लक्षण है !
जीवन में कम्पन है, स्पन्दन है,
जीवन्त उरों में अविरल धड़कन है !
रुकना
अस्तित्व - विनाशक
अशुभ मृत्यु को आमंत्रण,
चलते रहना ... चलते रहना !
एक मात्र मूल-मंत्र
साधक जीवन !
(19) प्रयोगरत
आदमी में
चाह जीवन की
सनातन और सर्वाधिक प्रबल है;
जब कि
हर जीवन्त की
अन्तिम सचाई
मृत्यु है !
हाँ, अन्त निश्चित है,
अटल है !
लेकिन / सत्य है यह भी
अमरता की : अजरता की
लहकती वासना का वेग
होगा कम नहीं,
अद्भुत पराक्रम आदमी का
चाहता कलरव,
रुदन मातम नहीं !
हर बार
ध्रुव मृति की चुनौती से
निरन्तर जूझना स्वीकार !
मृत्युंजय
बनेगा वह; बनेगा वह !
(20) सार्थकता
जीना-भर
जीवन-सार्थकता का
नहीं प्रमाण,
जीना -
मात्र विवशता
जैसे - मृत्यु ..... प्रयाण।
जो स्वाभाविक
उसके धारण में
कोई वैशिष्टय नहीं,
संज्ञा
प्राणी होना मात्र
मनुष्य नहीं।
मानव - महिमा का
उद् घोष तभी,
मन में हो
सच्चा तोष तभी
जब हम जीवन को
अभिनव अर्थ प्रदान करें,
भरे अंधेरे में
नव - नव ज्योतिर्लोकों का
संधान करें।
सृष्टि-रहस्यों को ज्ञात करें,
चाँद-सितारों से बात करें।
परमार्थ
हमारे जीने का लक्ष्य बने,
हर भौतिक संकट
पग-पग पर भक्ष्य बने।
इतनी क्षमताएँ
अर्जित हों,
फिर,
प्राण भले ही
मृत्यु समर्पित हों,
कोई ग्लानि नहीं,
कोई खेद नहीं,
इसमें
किंचित मतभेद नहीं,
जीवन सफल यही
जीवन विरल यही
धन्य मही !
(21) प्रार्थना
वांछित
अमरता नहीं;
चाहता हूँ
अजरता।
सकल स्वास्थ्य, आरोग्य
निरुद्विग्नता
तन और मन की।
अभिप्रेत वरदान यह
कल्पित किसी ईश से
नहीं।
स्व-साधित सतत साधना से
आराधना से नहीं।
तन क्लेश-मुक्त
मन क्लेश-मुक्त
हाँ,
एक-सौ-और-पच्चीस वर्षों
जिएँ हम!
अपने लिए,
दूसरों के लिए।
(22) मृग - तृषा
उच्छृंखल और महत्त्वाकांक्षी
मानव
धन के पीछे भाग रहा है
सुख के पीछे भाग रहा है
जीवन की क़ीमत पर।
आश्चर्य अरे
इस अद्भुत दूषित नीयत पर !
जीवन है तो / धन-योग बनेगा,
जीवन है तो / सुख-भोग सधेगा !
खंडित और विशृंखल जीवन
रोग-ग्रस्त / हत घायल जीवन
क्षण-भंगुर
मृत्यु-कुण्ड में
गिरने को आतुर !
अंधा, संभ्रम, अज्ञानी
मानव
धन ही वर्चस्व समझ रहा है
सुख को सर्वस्व समझ रहा है !
बहुमूल्य मिला जो जीवन / धो बैठेगा,
जीवन की नेमत / खो बैठेगा !
(23) संकल्प
पूर्ण निष्ठावान
हम,
आश्वस्त हो उतरे
विकट जीवन-मरण के
द्वन्द्व में !
बन सिपाही
अमर जीवन-वाहिनी के,
घिर न पाएंगे
विपक्षी के किसी
छल-छन्द में !
हार जाएँ,
पर, वर्चस्व मानेंगे नहीं
तनिक भी मरण का,
अधिकार अपना
छिनने नहीं देंगे
जीवन वरण का !
जयघोष गूँजेगा
चरम निश्वास तक,
संघर्षरत
बल-प्राण जूझेगा
शेष आस / प्रयास तक !
(24) जयघोष
सारा विश्व सोता है
इतनी रात गुज़रे
कौन रोता है ?
सुना है
पास के घर में
मृत्यु का धावा हुआ है,
सत्य है
कोई मुआ है !
यमदूत के
तीखे छुरे ने
आदमी को फिर
छुआ है !
पहुँचो
अमृत-सम्वेदना-लहरें लिए,
यह आदमी
फिर-फिर जिए !
जीवन-दुंदुभी बजती रहे,
क्षण-क्षण
भले ही, अरथियाँ सजती रहें !
(25) आह्नान
अलख
जगाने वाले आये हो,
नव-जीवन का
प्रिय मधु गीत
सुनाने वाले आये हो !
सोहर गाने वाले आये हो !
उर-वीणा के तार-तार पर
जीवन-राग
बजाने वाले आये हो !
मन से हारो !
जागो !
तन के मारो !
जागो !
जीवन के
लहराते सागर में
कूदो
ओ गोताख़ोरो !
जड़ता झकझोरो !
(26) एक दिन
जीवन
विजयी होगा
विश्वास करें,
नीच मीच से
न डरें; न डरें !
हर संशय का
नाश-विनाश करें !
जीवन जीतेगा
विश्वास करें !
घनघोर अंधेरा
मौत मरी का
छाएगा / डरपाएगा;
सूरज के बल पर / दम पर
विश्वास करें !
इसका
क़तरा-क़तरा फ़ाश करें !
चारों ओर प्रकाश भरें !
जीवन जीतेगा
विश्वास करें !
(27) उद्देश्य
हम
जो जीवन के शिल्पी हो
केवल जीवन की
बात करें,
जीवन की सार्थकता खोजें,
जीवन - तत्वों को
ज्ञात करें !
मरण
हमारा हरण करे तो
उस पर बढ़ कर
आघात करें,
जीवन का
जय - जयकार करें,
यम का
मृति का
संघात करें !
(28) अभीष्ट
जीवन-उपवन में
मृत्यु सर्पिणी का
अस्तित्व न हो,
मृत्यु भीत से आतंकित
मानव-व्यक्तित्व न हो !
हर मानव
भोगे जीवन
संदेह रहित,
हो हर पल उसका
मधुरित सिंचित !
जीवन - धर्मी
जीवन से खेले,
भरपूर जिये जीवन
हर सुख की बाँहें
बाँहों में ले ले !
(29) मन-वांछित
जब-तक
जीना चाहा
हमने;
ख़ूब जिये !
मानों
वर्षा में भी
जलते रहे दिये !
नहीं किसी की
रही कृपा,
जूझे -
अपने बल पर
विश्वास किये !
(30) सिध्द
जिजीविषु
नहीं करेगा
मृत्यु-प्रतीक्षा !
सोना
सच्चा खरा तपा
क्यों देगा
अग्नि-परीक्षा ?
भ्रम तोड़ो,
काल-चक्र को मोड़ो !
जीवन से नाता जोड़ो !
जड़ता छोड़ो !
(31) स्वस्थ दृष्टि
स्वयं को
शाश्वत समझ कर
जीते हो,
निश्चिन्त
हँसते और गाते हो,
बेफ़िक्र
खाते और पीते हो;
जीना
क्या इसे ही
हम कहें ?
अंत से
जब रू-ब-रू हों,
अन्यथा
अनभिज्ञ ही उससे रहें,
क्या
जीना इसे ही
हम कहें ?
(32) साम्य
गाता हूँ
विजय के गीत
गाता हूँ !
मृत्यु पर
जीवन जगत की जीत
गाता हूँ !
अति प्रिय वस्तु
जीवन-विस्फुरण की
बेधड़क जयकार
गाता हूँ !
क़ब्रिस्तान के आकाश में
जो गूँजते हो स्वर
परिन्दों के
स्वच्छन्द रिन्दों के
अनुवाद हो
मेरी
जीवन-भावनाओं के !
सहचार हो
मेरी
जीवन-अर्चनाओं के !
(33) दह्शतअंगेज़
सावधान !
फहरा दी है
हमने
घर-घर, गाँव-गाँव, नगर-नगर
जीवन की
नव-जीवन की
लाल पताकाएँ !
बस्ती-बस्ती, चौराहों-सतराहों पर,
यहाँ-वहाँ -
ठाँव-ठाँव !
लहरा दी हो
रक्त-पताकाएँ !
अब नहीं चलेगा
आतंकी, घातक, जन-भक्षी,
मद-ज्वर-ग्रस्त
मरण-राक्षस का
कोई भी दांव !
तन के भीतर घुस कर
घात लगाता है,
अपने को अविजित यम का
दूत बताता है,
तन के भीतर
विस्फोटक-बारूद
बिछाता है,
और ...
अदृश स्थानों से
छिप-छिप कर
दूरस्थ-नियन्त्रित-यंत्र चलाता है !
देखें
अब और किधर से आता है !
(34) मृत्यु-दर्शन
मृत्यु :
सुनिश्चित है जब;
व्यर्थ इस क़दर
क्यों होते हो
आशंकित,
आतंकित !
मृत्यु से अरे कह दो
'जब चाहे आना; आये।'
इस समयावधि तो
आओ,
मिल कर नाचें-गाएँ !
नाना वाद्य बजाएँ !
तोड़ें मौन;
मृत्यु की चिन्ता
करता है कौन ?
(35) आमंत्रण
मृत्यु
आना,
एक दिन ज़रूर आना !
और मुझे
अपने उड़नखटोले में
बैठा कर ले जाना;
दूर ... बहुत दूर
नरक में !
जिससे मो
नरक-वासियों को
संगठित कर सकूँ,
उन्हें विद्रोह के लिए
ललकार सकूँ,
ज़िन्दगी बदलने के लिए
तैयार कर सकूँ !
नहीं मानता मो
किसी चित्रगुप्त को
किसी यमराज को;
चुनौती दूंगा उन्हें !
बस, ज़रा कूद तो जाऊँ
नरक-कुण्ड में !
मिल जाऊँ
नरक-वासियों के
विशाल झुण्ड में !
(36) मृत्यु-परी से
मृत्यु आओ
हम तैयार हो !
मत समझो
कि लाचार हो ।
पूर्व-सूचना
दोगी नहीं क्या ?
आभार मेरा
लोगी नहीं क्या ?
आओगी -
बिना आहट किये
आश्चर्य देती !
नटखट बालिका की तरह !
ठीक है,
स्वीकार है !
मेरी चहेती,
तुम्हारा खेल यह
स्वीकार है !
चुपचाप आओ,
मृत्यु आओ
हम तैयार हो !
अच्छी तरह
समझते हो
कि जीवन-पुस्तिका का
उपसंहार हो तुम !
इसलिए
मेरे लिए
पूर्णता का
शुभ-समाचार हो तुम !
आओ,
मृत्यु आओ,
हम तैयार हो !
प्रतीक्षा में तुम्हारी
सज-धज कर
तैयार हो !
(37) निवेदन
मृत्यु
क्या हुआ
यदि तुम स्त्री-लिंग हो,
तुम्हें मित्र बना सकता हूँ !
शरमाती क्यों हो ?
आओ
हमजोली बनो ना !
हमख़ाना नहीं तो
हमसाया बनो ना !
चाँद के टुकड़े जैसी तुम !
सामने वाली खिड़की से
झाँकना,
ऑंकना !
और एक दिन अचानक
मुझे साथ ले
चल पड़ना
प्रेत-लोक में !
यों ही
नोकझोंक में !
(38) मृत्यु-विधि
स्वप्न देखते
आती होगी मृत्यु,
तन से
प्राण चले जाते होंगे
तभी।
स्वप्न देखता रहता आदमी
दिवंगत हो जाता होगा !
वह क्या जाने ?
दुनिया वालों से पूछो
जिन्होंने
तन पर रख
ढक दी है चादर !
क्या हुआ ?
हुआ क्या ?
आख़िर ?
(39) तुलना
शिव में
शव में
अन्तर है मात्र इकार का
(तीसरे वर्ण वार का।)
शिव
मंगलकारी है
सुख झड़ता है !
शव
अनिष्ट-सूचक
केवल सड़ता है !
शिव के तीन नेत्र हैं,
शव अंधा है !
कैसा गोरखधंधा है ?
(40) अन्तर
आपने याद किया
आभार !
मीठा दर्द दिया
स्वीकार !
कितना अद्भुत है संयोग
कि अन्तिम विदा
अरे ! ओ प्रेम प्रथम !
आये
ओझल होती राह पर,
लिए चाह े
जो कभी पूरी होनी नहीं,
कभी वास्तव स्थूल छुअन से
सह-अनुभूत हमारी
यह दूरी होनी नहीं !
जाता हूँ
याद लिए जाता हूँ,
दर्द लिए जाता हूँ !
(41) अन्त
समर
अब कहाँ है ?
सफ़र
अब कहाँ है ?
थम गया सब
बहता उछलता नदी-जल तरल,
जम गया सब
नसों में रुधिर की तरह !
दर्द से
देह की हड्डियाँ सब
चटखती लगातार,
अब कौन
इन्हें दबाए
टूटती आख़िरी साँस तक ?
अंधेरे-अंधेरे घिरे
जब न कोई
पास तक !
लहर अब कहाँ
एक ठहराव है,
ज़िन्दगी अब
शिथिल तार;
बिखराव है !
(42) आघात
मोने ...
जीवित रखा तुम्हें
अत: तुम्हारी
जीवित गलित लाश भी
ढोऊंगा !
मूक विवश ढोऊंगा !
विश्वासों का ख़ून किया
तुमने,
अरमानों को
जलती भट्ठी में भून दिया
तुमने !
छल-छद्म का
सफल अभिनय कर,
जीवन के हर पल में
दर्द असह भर !
प्यारा नहीं बना,
हत्यारा नहीं बना !
अरे ! नहीं छीना जीने का हक़;
यदपि हुआ बेपरदा शक,
हर शक !
जीवित रखा जब
नरकाग्नि में दहूंगा
बन संवेदनहीन
सब सहूंगा !
पहले या फिर
सब को
चिर-निद्रा में सोना है,
मिट्टी-मिट्टी होना है !
ओ बदक़िस्मत !
फिर, कैसा रोना है ?
(43) सत्य
प्राण-पखेरू
उड़ जाएंगे,
उड़ जाएंगे !
प्राण-पखेरू
उड़ जाएंगे !
काहे इतना जतन करे,
शाम-सबेरे भजन करे,
तेरे वश में क्या है रे
मन्दिर-मन्दिर नमन करे,
इक दिन तन के पिंजर से
प्राण-पखेरू
उड़ जाएंगे !
जो कभी न
वापस आएंगे !
उड़ जाएंगे
प्राण-पखेरू
उड़ जाएंगे !
(44) निश्चिति
तय है कि
तू
एक दिन
मृत्यु की गोद में
मौन
सो जायगा !
तय है कि
तू
एक दिन
मृत्यु के घोर अंधियार में
डूब
खो जायगा !
तय है कि
तू
एक दिन
त्याग कर रूप श्री
भस्म में सात्
हो जायगा !
(45) घोषणा
दुनिया वालों से
कह दो
अब
महेन्द्रभटनागर सोता है !
चिर-निद्रा में सोता है !
जो
होना होता है;
वह होता है !
रे मानव !
तू क्यों रोता है ?
जीवन
जो अपना है,
उस पर भी
अपना अधिकार नहीं,
घर-धन
जो अपना है
उसमें भी
सचमुच
कोई सार नहीं !
उसके
तुम दावेदार नहीं !
बन कर
मौन विरक्त - विरागी
चल देते हो
छोड़ सभी,
चल देते हो
नये-पुराने नाते-रिश्ते
तोड़ सभी !
रे इस क्षण का
अनुभव
सब को करना है,
मृत्यु अटल है
फिर
उससे क्या डरना है ?
ओ, मृत्यु अमर !
तुम समझो चाहे
लाचार मुझे,
उपसंहार मुझे,
स्वेच्छा से
करता हूँ अंगीकार तुम्हें
तन-मन से स्वीकार तुम्हें !
सुखदायी
मिट्टी की शैया पर सोता हूँ !
इस मिट्टी के
कण - कण में मिल कर
अपनापन खोता हूँ !
नव जीवन बोता हूँ !
जैसे जीवन अपनाया
वैसे
हे, मृत्यु
तुम्हें भी अपनाता हूँ !
जाता हूँ,
दुनिया से जाता हूँ !
सुन्दर घर, सुन्दर दुनिया से
जाता हूँ !
सदा ... सदा को
जाता हूँ !
(46) नमन
अलविदा !
जग की बहारो
अलविदा !
ओ, दमकते चाँद
झिलमिलाते सित सितारो
अलविदा !
पहाड़ो ... घाटियो
ढालो ... कछारो
अलविदा !
उफ़नती सिन्धु-धारो
अलविदा !
फड़फड़ाती
मोह की पाँखो,
छलछलाती
प्यार की ऑंखो
अलविदा !
अटूटे बंध की बाँहो
अधूरी छूटती चाहो
अलविदा !
अलविदा !
(47) अलविदा !
प्रारब्ध के मारे हुए
हम,
ज़िन्दगी के खेल में
हारे हुए
हम,
हाय !
अपनों से सताए,
हृदय पर चोट खाए,
सिर झुकाए
मौन
जाते हैं सदा को
कभी भी
याद मत करना,
आज के दिन भी
सुनो,
स्मृति-दीप मत रखना !
(48) तपस्वी
मृत्यु पर पाने विजय
सिध्दार्थ - साधक
एक और चला !
जिसने हर चरण
यम-वाहिनी की
छल-कुचालों को दला !
किसी भी व्यूह में
न फँसा,
मौत पर
अपना कठिन फंदा कसा !
गा रहा है जो
ज़िन्दगी के गीत
मृत्यु-कगार पर,
एक दिन
पा जायगा
पद अमर
अपना बदल कर रूप !
रखना सुरक्षित
इस धरोहर को
बना कर स्तूप !
(49) मृत्यु-पत्र
रोना नहीं,
दीन-निरीह होना नहीं !
आघात सहना,
संयमित रहना।
आडम्बरों से मुक्त
अन्तिम कर्म हो,
ध्यान में बस
पारलौकिक-पारमार्थिक मर्म हो !
मृत्युपरान्त जगत व जीवन
न जाना किसी ने
न देखा किसी ने ....
निर्धारित व्यवस्थाएँ समस्त
कपोल-कल्पित हो,
सब अतर्कित हैं।
अनुसरण उनका अवांछित है !
अंधानुयायी रे नहीं बनना,
ज्ञान के आलोक में
हो संस्कार-पूत उपासना।
आदेश यह
सद्धर्म सद्भावना।
(50) कृतकर्मा
दु:ख क्यों ?
शरीर-धर्म की पूर्ति पर
दु:ख क्यों ?
अंत
चिन्ह पूर्णता,
सफल चरण
दु:ख क्यों ?
जीव की समाप्ति
एक क्रम
दु:ख क्यों ?
शेष
जीवनी वृतान्त
अर्थ सिध्दि दो,
नाम दो।
आख़िरी सलाम लो !
---------------.
रचनाकार परिचय:
उत्कृष्ट काव्य-संवेदना समन्वित द्वि-भाषिक कवि :
हिन्दी और अंग्रेज़ी।
सन् 1941 से काव्य-रचना आरम्भ। 'विशाल भारत',
कोलकाता (मार्च 1944) में प्रथम कविता का प्रकाशन।
लगभग छह-वर्ष की काव्य-रचना का परिप्रेक्ष्य स्वतंत्रता-पूर्व भारत; शेष स्वातंत्रयोत्तर। सामाजिक-राजनीतिक-राष्ट्रीय
चेतना-सम्पन्न रचनाकार।
लब्ध-प्रतिष्ठ प्रगतिवादी-जनवादी कवि। अन्य प्रमुख काव्य-
विषय प्रेम, प्रकृति, जीवन-दर्शन ।
दर्द की गहन अनुभूतियों के समान्तर जीवन और जगत के प्रति आस्थावान कवि। अदम्य जिजीविषा एवं आशा-
विश्वास के अद्भुत-अकम्प स्वरों के सर्जक।
जन्म : 26 जून 1926 / झाँसी (उत्तर-प्रदेश)
शिक्षा : एम.ए. (1948), पी-एच.डी. (1957) नागपुर
विश्वविद्यालय से।
कार्य : कमलाराजा कन्या स्नातकोत्तर महाविद्यालय /
जीवाजी विश्वविद्यालय, ग्वालियर से प्रोफ़ेसर-अध्यक्ष पद से सेवानिवृत्त।
सम्प्रति : शोध-निर्देशक हिन्दी भाषा एवं साहित्य।
कार्यक्षे त्र : चम्बल-अंचल, मालवांचल, बुंदेलखंड।
प्रकाशन % 'डा. महेंद्रभटनागर-समग्र' छह खंडों में
उपलब्ध।
प्रकाशित काव्य-कृतियाँ 20
अनुवाद : कविताएँ अंग्रेज़ी, फ्रेंच, चेक एवं अधिकांश भारतीय भाषाओं में अनूदित व पुस्तकाकार प्रकाशित।
वेबसाइट : हिन्दी और अंग्रेज़ी की अनेक वेबसाइटों पर
काव्य-साहित्य दृष्टव्य।
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सम्पर्क : फ़ोन : 0751-4092908

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